दिवाली की रात दिल्ली फिर धुएं और जहरीली हवा की गिरफ्त में थी। आसमान पर चमकते पटाखों के बीच अदृश्य गैसों का जाल बुनता रहा और लोग अनजाने में अपने ही फेफड़ों को जला रहे थे। मगर इस बार कहानी सिर्फ प्रदूषण की नहीं है—यह उस सच्चाई की है, जिसे आंकड़ों की परतों में छिपाने की कोशिश की गई।
न्यायालय में हुई कार्यवाही ने एक चौंकाने वाला तथ्य उजागर किया है। सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त न्यायमित्र ने बताया कि दिवाली के दिन दिल्ली के प्रदूषण निगरानी केंद्रों में से 37 में से केवल 9 ही काम कर रहे थे। बाकी 28 या तो बंद थे या बंद कर दिए गए थे। यानी राजधानी में प्रदूषण का वास्तविक स्तर कितना था, इसका पता ही नहीं लगाया जा सका। सवाल यह उठता है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में मशीनें एक साथ “खराब” कैसे हो गईं? क्या यह तकनीकी संयोग था या सुनियोजित रणनीति?
इस पर संदेह इसलिए और गहराता है क्योंकि कुछ वीडियो सामने आए, जिनमें प्रदूषण निगरानी केंद्रों के आसपास लगातार जल छिड़काव होता दिखाया गया। आरोप यह है कि ऐसा जानबूझकर किया गया ताकि सेंसरों पर जमा धूल या कण धोकर एक्यूआई (Air Quality Index) का स्तर कृत्रिम रूप से बेहतर दिखे। यदि ऐसा हुआ, तो यह केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि जनस्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है।
न्यायमित्र ने अदालत में यह भी सवाल उठाया कि जब सरकार के पास वास्तविक आंकड़े ही नहीं थे, तो फिर ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान (GRAP) कैसे लागू किया गया? बिना विश्वसनीय डेटा के किसी भी नीति या आपात कार्रवाई की प्रभावशीलता संदिग्ध हो जाती है।
यह पहला मौका नहीं है जब सरकार पर आंकड़ों से खिलवाड़ का आरोप लगा हो। कभी बेरोजगारी के आंकड़े दबाने की बात होती है, कभी कोरोना से मौतों के आंकड़ों पर सवाल उठते हैं, और अब प्रदूषण के स्तर पर शंका जताई जा रही है। ऐसा लगता है कि हम सच्चाई सुधारने के बजाय उसकी तस्वीर को सुंदर बनाने में अधिक रुचि रखते हैं। मगर सवाल यह है कि क्या तस्वीर के रंग बदल देने से हवा की जहरीली गंध भी बदल जाएगी?
यदि वास्तव में निगरानी केंद्रों को जानबूझकर बंद किया गया, तो यह केवल तकनीकी गड़बड़ी नहीं बल्कि एक गंभीर नैतिक अपराध है। इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। जनता को यह जानने का अधिकार है कि उसकी सांसें किस हद तक जहरीली हो चुकी हैं, और सरकार इस दिशा में क्या कर रही है।
आखिरकार, शासन की प्राथमिक जिम्मेदारी आंकड़ों की सफेदी नहीं बल्कि नागरिकों की सेहत की सुरक्षा है। हमें यह समझना होगा कि प्रदूषण की समस्या प्रेस कॉन्फ्रेंस या रिपोर्टों के सौंदर्यीकरण से नहीं, ईमानदार नीति और सख्त क्रियान्वयन से सुलझेगी।
आज जरूरत इस बात की है कि सरकार सच्चाई से मुंह न मोड़े। क्योंकि हवा की जहरीली सच्चाई को झूठे आंकड़ों से छिपाया जा सकता है, पर सांसों की तकलीफ से नहीं।

हिंद अभिमान टाइम्स

