संपादकीय। पराली जलाने पर प्रशासन की सख्ती बढ़ गई है। अधिकारी खेतों में उतरकर मशीनें सीज़ कर रहे हैं, गांव–गांव चेतावनी दी जा रही है, उपग्रह से निगरानी की जा रही है—लेकिन किसानों के मन में एक टीस बार-बार उठती है: सरकार हमारी पराली तो आसमान से देख लेती है, पर हमारे दर्द को कब देखेगी? किसान कहते हैं कि उपग्रह से खेतों में उठता धुआँ तो सरकार को तुरंत दिख जाता है, लेकिन महीनों की मेहनत के बाद उनकी फसल जब औने-पौने दामों पर बिकती है, तब कोई नहीं पूछता। खेत की मिट्टी को उपजाऊ रखने का बोझ उसी किसान पर है जो अपने परिवार का पेट भरने के लिए हर दिन संघर्ष कर रहा है। पराली जलाना गलत है—इस बात को किसान भी जानते हैं—लेकिन सवाल यह है कि इसके विकल्प कितने किसान की पहुँच में हैं? किसान रामू यादव कहते हैं, “हम भी चाहते हैं कि पराली न जलाएं, लेकिन मशीनें महंगी हैं। कोई हमें बताए कि गरीब किसान इसके बिना क्या करे?” किसान सुखदेव प्रजापति कहते हैं, सरकार को पराली का धुआँ दिखता है, लेकिन जब हमारी गेहूँ–धान की कीमत गिरती है, तब कोई अधिकारी नहीं आता।”यह सच है कि पराली जलाने से पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम होती है, हवा जहरीली होती है, और इसका असर इंसानों से लेकर पशुओं तक पर पड़ता है। इसलिए किसानों को जागरूक होना आवश्यक है। पराली को कम्पोस्ट बनाना, गड्ढों में सड़ाना, गौशाला को देना, या आधुनिक कृषि यंत्रों का इस्तेमाल—ये सभी बेहतर विकल्प हैं।लेकिन उतना ही जरूरी है कि सरकार किसानों का दर्द समझे। आज भी जिले के हजारों किसान ऐसे हैं जिनके पास न SMS मशीन है, न रोटावेटर, न कम्पोस्ट यूनिट। कई किसानों के पास तो अपना ट्रैक्टर तक नहीं है। पराली हटाने का खर्च केवल बोझ बनकर रह जाता है। किसान अकेले नहीं लड़ सकता—उसे प्रशासन से सहयोग चाहिए, सहानुभूति चाहिए, और ऐसी नीति चाहिए जिसमें पर्यावरण भी बचे और किसान भी।
किसानों का संदेश स्पष्ट है:
जागरूकता जरूरी है, सख्ती भी जरूरी है… लेकिन उससे पहले किसानों की मजबूरी को समझना और उन्हें रास्ता दिखाना सबसे जरूरी है।। यह तभी संभव है जब प्रशासन और किसान साथ मिलकर समाधान खोजें।पराली मुक्त वातावरण तभी बनेगा, जब किसान को दंड नहीं, दिशा मिले; भय नहीं, भरोसा मिले।
लेखक: राजन पटेल, एडिटर- हिन्द अभिमान टाइम्स

